कबूतर

वो लाल आंखों वाला कबूतर

लगाव… ये शब्द सुनते ही शायद आपको आपके दिल के सबसे करीब रहने वाले शख्स की याद आ जाती होगी पर मेरे साथ ऐसा नहीं है. मुझे चहेते शख्स नहीं बल्कि उस बेजुबान की याद आती है, जिसने उन दिनों में मेरा साथ दिया, मेरा सहारा बना, जब पूरी दुनिया कोरोना के डर से अपने घरों में दुबकी हुई थी.
अब आप सोच रहे होंगे कि भला कोरोना महामारी के समय एक कबूतर किसी का सहारा कैसे बन सकता है? तो चलिए बताते हैं आपको उस कबूतर… नहीं-नहीं लाल आंखों वाले कबूतर की कहानी.
बात साल 2020 की है. मार्च 2020 तक भारत में कोरोना अपने पैर पसार चुका था. 22 मार्च को पीएम मोदी ने पूरे देश में जनता कर्फ्यू का ऐलान कर दिया था. इसके कुछ दिनों बाद ही लॉकडाउन लग गया. साथ ही सभी ऑफिसेस में वर्क फ्रॉम होम कर दिया गया था. बाकी कई सारे लोगों की तरह मैं भी यहीं दिल्ली में फंसकर गई थी. किसी तरह मार्च का महीना तो कट गया लेकिन उसके बाद सरकार ने ट्रेनों की आवाजाही पर भी पाबंदी लगा दी थी.
मेरा दुख बढ़ता जा रहा था क्योंकि एक शख्स अकेला बिना बाहर जाए आखिर कितने दिनों तक 10 बाई 10 के कमरे में रह सकता था. लॉकडाउन की वजह से घर से बाहर कदम तक नहीं निकाल सकते थे पर किराए के एक कमरे में हर वक्त बंद भी रहा नहीं जा सकता था. खैर कर भी क्या सकते थे… रहने लगी तनहाइयों के साथ. वर्क फ्रॉम होम के 9 घंटे काम करने के बाद घरवालों को कॉल घुमा देती थी. पर वो भी कितनी ही देर बात करते. मौसम में जो कहर वाली दिल्ली की सड़ांध गर्मी थी, उसने तो हाल और बुरा कर रखा था. जिंदगी कट सी रही थी.
फिर एक दिन ऐसा लगा कि जाली वाले दरवाजे से कोई अंदर झांकने की कोशिश कर रहा था. अब लॉकडाउन में जब आवाजाही बंद थी तो मैं भी अचानक डर गई कि ये कौन है. बिना शोर किए जैसे ही दरवाजे के पास गई तो देखा कि चिरौंजी जैसी छोटी-छोटी पर लाल रंग की खूबसूरती लिए मासूम आंखें मानों मुझसे कह रही थी कि भूख लगी है. रूम के बाहर छत पर मकान मालिक ने कुछ 8-9 गमलों में हरे-भरे पौधे लगा रखे थे. मैंने धीरे से दरवाजा खोला पर वो लाल आंखों वाला कबूतर डर के मारे गमलों के पीछे छिप गया.
मैंने भी दोबारा दौड़ाया नहीं. चुपचाप वापस आई और मुट्ठी भर चावल ले जाकर छत पर बिखेर दिए. हैरान थी मैं, इस बार लाल आंखों वाले कबूतर को मेरे सामने आने में डर नहीं लगा. क्यूट सी चोंच से वो हाई स्पीड में चावल के दाने चुगने लगा. जनाब जिस स्पीड से खा रहे थे, लग रहा था कि पूरे लॉकडाउन में ही नहीं खाया हो. खैर मैं इतना तो समझ चुकी थी कि खाने के बाद इनके लिए पानी भी देना होगा. पहले से रखे परिंडे में मैंने पानी भी रख दिया.
जनाब ने खाने के बाद एक बार फिर से कमरे की तरफ देखा. ऐसा लगा कि वह कह रहा हो कि रोज आउंगा मिलने. मुझे भी अंदर से अलग खुशी हो रही थी एक नया दोस्त मिलने की. उस लाल आंखों वाले कबूतर के रोज आने का सिलसिला जारी हो गया. आपको जानकर हैरानी होगी कि 2-4 दिनों बाद वह अपना पूरा कुनबा ही लेकर आने लगे.

 मैं बेचारी क्या करती. बेजुबानों की सेवा तो वैसे भी परम धरम है. रोज मुट्ठियों में चावल भरकर समय से पहले छत पर बिखेर देती थी. इतने सारे कबूतरों के बावजूद वो लाल आंखों वाले कबूतर से मेरी नजर नहीं हटती थी. अपनापन सा हो गया था. 4 महीने दिल्ली रुकने के बाद एक दिन लखनऊ के लिए मैंने कैब बुक की और अपना सामान लेकर जाने लगी कि तभी उड़ता हुआ वो लाल आंखों वाला कबूतर छत पर गुटरगूं करने लगा. शायद वो कहना चाहता था कि तुम चली जाओगी तो मुझे दाना कौन खिलाएगा. मैंने उसे देखा पर वर्क फ्रॉम होम भी लंबा चलने वाला था. ऐसे में अकेले रुकना मुश्किल हो रहा था. घरवालों की याद भी आ रही थी. मैं चली गई.
कोविड खत्म होने के बाद जब वापस आई तो उसकी याद आई. बाकी कबूतर तो आते हैं आज भी पर वो लाल आंखों वाला दोबारा नहीं आया. मुझे उसकी याद आती है.

Comments are closed.

error: Content is protected !!
Scroll to Top