अम्मा…अम्मा… आटे की चिरैया बना दो,
वो उड़े न तो वही कागज के पंख लगा दो,
मैं हाथों में लेकर पूरे घर में दौड़ जाउंगी,
आटे की चिरैया में थोड़ा रंग लगा दो,
बस एक बार मेरा बचपन लौटा दो….
दादा मेरा हाथ थाम लो,
ले चलो मुझे उन्हीं खेतों-बागों में,
जहां दिन भर भगाते थे बंदर-गाय,
जहां शाम को चाचू लाते थे गरम चाय,
कुल्हड़ वाली वही चाय पिलवा दो,
बस एक बार मेरा बचपन लौटा दो….
पापा….जब काम से वापस आते थे,
हम दौड़कर उनको लिपट जाते थे,
कुछ न कुछ जरूर लाए होंगे खाने के लिए,
इसी आस में उनका पूरा झोला खंगाल जाते थे,
शक्करपाले, पेठा और जलेबी खिलवा दो,
बस एक बार मेरा बचपन लौटा दो….
याद है वो चुपके-चुपके से मिट्टी खाना,
3 गुना बड़े दादा के जूते पहनकर पूरे घर में इतराना,
गांव में आ जाए मदारी तो बिना बताए देखने जाना,
वापस आने के बाद सबकी डांट खाना,
एक बार फिर बहूरूपियों को दिखवा दो,
बस एक बार मेरा बचपन लौटा दो….
जब आती थी स्कूल जाने की बारी,
याद आ जाती थी कभी सिर दर्द तो कभी पेट की बीमारी,
मम्मी कहती थी पढ़ ले बेटा कुछ बन जाएगी,
ये दुनिया बहुत आगे है, तू भी निकल जाएगी,
वही बस्ता वही कॉपी-पेंसिल फिर से पकड़ा दो,
बस एक बार मेरा बचपन लौटा दो….
आते थे जब-जब आसमान में गरजते बादल,
न कीचड़, न मिट्टी की परवाह करते थे हम पागल,
बेफिक्री से खूब भीगते थे सावन की बारिशों में,
कोई नहीं था जो लपेटे साजिशों में,
ऊंची इमारत नहीं, मिट्टी के ही घर बनवा दो,
बस एक बार मेरा बचपन लौटा दो….
आज जब-जब आसमान में देखते हैं उड़ती पतंग,
दिल में भर जाती है वो शैतानी वाले दिनों की उमंग,
दिल कहता है – चलो एक बार फिर कनकैया उड़ाते हैं,
मिलता नहीं अब वो खुला आसमान, घर वापस लौट आते हैं,
खोए हुए बेफिक्री के वो दिन लौटा दो,
बस एक बार मेरा बचपन लौटा दो….
आते थे जब-जब शादी-त्योहार,
दादी-दादा संग जाते थे गांव के बाजार,
पहनते थे जेंटलमैन वाले बेल-बाटम के कपड़े,
चश्मे का रौब देखकर हर कोई लुटाता था प्यार,
गांव की पगडंडियों पर दोस्तों की हंसी दिलवा दो,
बस एक बार मेरा बचपन लौटा दो….
बागों में कोयल जब-जब भरती थी कूक,
छेड़ते थे उसको, जब तक वह नहीं हो जाती थी चुप,
खिलौने में किसी का नहीं होता था न तेरा, न मेरा,
घर के द्वारे की चारपाई पर मिलता था खुशियों का डेरा,
वही बेफिक्री, वही सच्ची मुस्कानों के सुकून को दिलवा दो,
बस एक बार मेरा बचपन लौटा दो….
जब कभी कोई नहीं होता था घर पर,
बड़ा भैया सिर पर लगाता था तेल ठोक-ठोक कर,
बालों में कंघी करके करता था टेढ़ी-मेढ़ी चुटिया,
लगूं जो रोने तो लाकर दे देता था घर की सारी गुड़िया,
भाई-बहन और परिवार की खुशी के वही पल लौटा दो,
बस एक बार मेरा बचपन लौटा दो….
याद है जब जाते थे नाना-नानी के घर,
पूरा परिवार लेटता था खुले आसमान के नीचे छत पर,
तारे गिनकर बता देती थी वो कितने बजे हैं,
नहीं थी किसी तरह की टेंशन, लगता था कितने ही मजे हैं,
मामा-मामी की आती थी जब कहानी सुनाने की बारी,
सुकून भरी नींद तब तक आ जाती थी प्यारी,
बिना मोबाइल और टीवी के दिन लौटा दो,
बस एक बार मेरा बचपन लौटा दो….
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