वो दिन बड़े सुहाने थे, जब हम सबसे बेगाने थे,
गुड्डे-गुड़ियों के खेल थे, जज्बातों के मेल थे,
जमाने वो अनसुने हो गए,
हां हम बड़े हो गए.
बातों में बेफिक्री थी, दोस्ती हर किसी से जिगरी थी,
न अपना था, न पराया था, बस दिलों में हर कोई समाया था,
जवानी की दहलीज पर खड़े हो गए,
हां हम बड़े हो गए.
किनारे पर है कश्ती, फिर भी निकल नहीं पा रही हूं
दुनिया को जीत लेने का खुमार था,
आंखों में सपनों का जहां बेशुमार था,
लिखनी खुद की ऐसी कहानी थी,
जो हर किसी को सुनानी थी,
जिम्मेदारियों के बोझ में वो सब खो गए,
हां हम बड़े हो गए.
शर्मा जी के बेटे की तरह है बनना,
पापा ने रखी थी मुझसे यही तमन्ना,
मेरी सच्चाई-ईमानदारी ने सबको भड़काया,
मां ने कभी खोट करना नहीं था सिखाया,
कमाई की चाहत में डूबते चले गए,
हां हम बड़े हो गए.
सबसे आगे निकलने की चाह थी,
क्या खो रहे हैं हम, इसकी न परवाह थी,
खो गए दोस्तों के वो ठहाके,
जो कभी गली के नुक्कड़ पर थे लगाते,
दूरियों से अपने भी पराए हो गए,
हां हम बड़े हो गए.
अब दिल को उस सुकून की आस है,
नकली लोगों के बीच अपनों की तलाश है,
काश फिर लौट आए बेफिक्रियों का दौर,
मुरझाए चेहरों को नहीं चाहिए कुछ और,
अब तो ख्वाहिशों के मायने भी बदल गए,
हां हम बड़े हो गए.