kinare par hai kashti

किनारे पर है कश्ती, फिर भी निकल नहीं पा रही हूं

उलझी हूं मैं खुद में,
सुलझ नहीं पा रही हूं,
किनारे पर है कश्ती,
फिर भी निकल नहीं पा रही हूं.

मन परेशान सा है,
जिंदगी मानो ठहरी सी है,
किससे कहूं, कैसे कहूं,
अजीब मजबूरी सी है.

ये फरवरी, मार्च, अप्रैल का महीना, न जाने क्या रंग दिखलाता है…

तिलमिलाहट से भरा है दिल,
बेचैनी सताती है,
कहां गए मेरे सुकून भरे दिन,
यह बात याद आती है.

दम घुटता सा है,
आंखें भीगी सी रहती हैं,
आईने के सामने नजरें,
ढेरों सवाल मुझसे करती हैं.

एक दिन सब ठीक हो जाएगा,
यह बात हर कोई समझाता है,
कब आएगा वो दिन,
यह कोई क्यों नहीं बताता है.

सब कुछ छोड़ कर
कहीं भाग जाने का मन करता है,
एकांत पाने को यह
दिल मेरा तरसता है.

मुट्ठी से रेत की तरह
वक्त तेजी से फिसला जा रहा है,
जीवन मुझे हर दिन
नए-नए रंग दिखा रहा है.

तुमसे इश्क़ किया तो जाना है….

जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते,
अपनों से दूर हो नहीं सकते,
मन में भरी हैं उलझनें,
फिर भी खुलकर रो नहीं सकते.

बंधन नहीं है कोई,
फिर भी बढ़ नहीं पा रही हूं,
अंदर से आती आवाज,
क्या पीछे हुई जा रही हूं?

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top