ऐ इंसान तू भी क्या कमाल है,
आंखों पर तेरी कैसे भ्रमों का जाल है?
खुद को कभी सिख, हिंदू तो
कभी कहता मुसलमान है.
जिस्मों से इंसानियत की उतार दी खाल है.
खत्म हो रही जिंदगियों का न तुझे मलाल है,
रोज है लड़ता मंदिर-मस्जिद की खातिर,
याद रख इनकी नींव में रखी ईंटों का रंग एक सा लाल है.
ऐ इंसान तू भी क्या कमाल है,
आंखों पर तेरी कैसे भ्रमों का जाल है?
खुलेआम लुट रही मां-बेटियों की इज्जत,
न है कोई रोकने वाला,
चल रही सरेआम गोलियां तलवारें,
लोगों के मुंह से निकली है नफरत की ज्वाला.
मां-बाप का नाम रोशन करने का सपना लिए
बेरोजगार कर रहे आत्महत्या हैं,
मजहब के नाम पर लड़ाने वाले
बताते ऐसी खबरों को असत्य है.
अखबारों में एक तरफा खबरों का जाल है,
युवा मेहनत के बजाय नेता-नगरी में लगकर
चोरी-छिपे फूंक रहा नशे का माल है.
ऐ इंसान तू भी क्या कमाल है,
आंखों पर तेरी कैसे भ्रमों का जाल है?
सरकारें कर नहीं रहीं आम आदमी की सुनवाई हैं,
जिसने उठाई खिलाफ आवाज, उसी की शामत आई है,
घर के बच्चों को रैलियों, दलों और जनसभाओं में जाने से बचाओ,
हो सके जितना, पढ़ा लिखाकर काबिल बनाओ,
होंगे जब पढ़े-लिखे और अधिकारों के प्रति जागरूक,
हर जगह करेंगे न्याय की बात, रखेंगे अपनी दो टूक.
महंगाई के इस दौर में खर्चे की हर किसी पर लटकी तलवार है,
बिना पैसे न नौकरी, न इज्जत रहेगी, शोबाजी जी का जंजाल है.
ऐ इंसान तू भी क्या कमाल है,
आंखों पर तेरी कैसे भ्रमों का जाल है?